दुनिया ख़त्म होने वाली है। बस आधा घंटा बचा है। पिंटू भी ये जानता है कि आधा घंटा ही बचा है। उसे समझ नहीं आ रहा कि वो खुद से बाज़ार जा के अपनी ज़िन्दगी का आख़िरी गुलाबजामुन खा ले या मम्मी-पापा के लौटने का इंतज़ार करे। मम्मी-पापा को अब तक आ जाना चाहिए था। उन्होंने कहा था वो पक्का आ जाएंगे। दादी माँ ने दोपहर से शोर मचा दिया था कि उन्हें जाते-जाते गंगा के दर्शन करने हैं। अब सड़कों पर इतनी भीड़ है कि लगता नहीं मम्मी-पापा वापस आ पाएंगे। बस आधा घंटा और।
सुबह से टीवी पर बता रहे हैं कि शाम 6 बजकर 12 मिनट पर एक बहुत बड़ा सितारा पृथ्वी के बगल से गुज़रेगा। इस सितारे का नाम है ITR-688, वैसे न्यूज़ वाले इसे 6 महीनों से डैथ-स्टार या मृत्यु-तारा कह रहे हैं। जैसे ही ये सितारा हमारे बगल में आएगा, दुनिया की हर शह को जोड़ के रखने वाला ऐटमी बल, प्रोटोन और एलेक्ट्रोन के बीच का आकर्षण ख़त्म हो जाएगा। तीन सेकंड। सिर्फ तीन सेकंड लगेंगे ITR-688 को पृथ्वी पार करने में और उन्हीं तीन सेकंड में हम सब बिखर जाएंगे। बहुत ही रोमांचक तीन सेकंड होंगे ये। पहले ही सेकंड में ऐटमी बल ख़त्म होने से हम सब ऐसे खुल के गिरेंगे जैसे कंचों से ठसाठस भरी बोरी को कोई उल्टा पलट दे। इंसान, जानवर, पेड़, धातु, प्लास्टिक — सब प्रोटोन और इलेक्ट्रोन में बदल जाएगा। दूसरे सेकंड में इस प्रक्रिया से इतनी ऊर्जा निकलेगी कि अगल-बगल के निर्दोष ग्रह, शुक्र और मंगल भी झुलस जाएंगे। उस सेकंड में मंगल का तापमान 186 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा और मंगल को अपने पुराने तापमान, (दिन में) 20 डिग्री, पर पहुँचने में 7 साल लगेंगे।
पापा शुरू शुरू में बहुत हँसते थे इस ख़बर पर। पिंटू भी साथ में हँसता था। पिंटू के स्कूल के टीचर भी। नन्दलाल सर तो कहते थे टीवी ही देखना बंद कर दो। आज समझ आ रहा होगा नन्दलाल सर को। खिड़की से मुंडी बाहर निकालो तो वो सितारा आता हुआ दिखता है। जैसे चाँद को किसी ने हवा भर के 50 गुना बड़ा कर दिया हो। दो दिन पहले तक भी कोई मानने को तैय्यार नहीं था जब कि दिसंबर में भी जून जैसी गर्मी हो गयी थी। लेकिन कल दोपहर से तारा साफ़ दिखना शुरू हुआ (सबसे पहले ‘आज टीवी’ ने दिखाया!) और तब से तेज़ी से बड़ा ही होता जा रहा है। इसलिए आज सुबह पापा ने कहा कि सब अपनी-अपनी अंतिम इच्छा बता दो, वो पूरी करने की कोशिश करेंगे। मम्मी तो रोने-वोने लगी और बोली कि उन्हें अपने बचपन का स्कूल देखना है। तो सुबह सब लोग बसंता स्कूल गए। मम्मी अपनी पुरानी क्लास में गयी, पुरानी बेंच पर बैठी, और उसपर कुरेदे हुए सैकड़ों नामों में से अपना नाम खोज निकाला। मम्मी ने सबको बताया कि ये नाम उन्होंने एक लड़के के लिए कुरेदा था लेकिन अब उन्हें उस लड़के का नाम तक याद नहीं। पापा की अंतिम इच्छा थी कि वो घर आके
सबको खिचड़ी बना के खिलाएं। दादी की पहले कोई इच्छा नहीं थी लेकिन दोपहर को खिचड़ी खाने के बाद उन्होंने बोला कि गंगा स्नान करना है। और पिंटू ने कहा कि उसे गुलाबजामुन खाना है।
पापा ने कहा था ‘हाँ पक्का खिलाएंगे तुमको। करेजवा खिलाएंगे पाण्डेपुर चौमानी वाला।’ करेजवा वो गुलाबजामुन है जो कलेजे जितना नाज़ुक और रसीला है। हलवाई ग्राहकों से शर्तें लगाते हैं कि ये प्लेट से उठाकर मुँह तक ले जाने में टूट न जाए तो इसके पैसे मत देना। पिंटू को बड़ा मन था आज रवाना होने से पहले एक करेजवा खाने का। पर पापा मम्मी तो दिख नहीं रहे। और अगर अब आये भी तो यहां से पाण्डेपुर पहुँचने में ही दुनिया समाप्त हो जायेगी।
पर इतने लोग सड़क पे क्यों हैं? सबको घर में बैठना चाहिए। अब तो टीवी वाले भी घर चले गए। सबने अपने-अपने आखिरी समाचार पढ़ दिए। कुछ रोते हुए गए और कुछ पागलों की तरह हँसते हुए। लेकिन पिंटू को ख़ुशी हुयी जब उसके पसंदीदा क्रिकेटर संजू रस्तोगी ने कहा — आखिरी दिन है, मस्त रहो। अपनी पसंद की कोई चीज़ खाओ।
पिंटू शायद ३ साल का था जब उसने पहली बार मिठाई खायी थी। बनारस में वैसे तो हज़ारों मिठाई की दुकाने हैं और कहा जाता है यहाँ कुल मिलाकर बीस हज़ार अलग-अलग किस्मों की मिठाइयाँ बनती हैं। बहुत सी मिठाइयाँ, जैसे कटहल के लड्डू या बाँस (हाँ वो लठ्ठे वाला बाँस) का मुरब्बा यहीं की ईजाद है और बस यहाँ की गलियों में ही मिलता है। एक पाठक जी तो मिटटी की बर्फी भी बनाते थे। गंगा तट की चिकनी मिटटी, दूर गाँव से लाते थे जहाँ पानी साफ़ हो। उस मिटटी को कई-कई दिन धो के, साफ़ कर के, फिर उसमें चन्दन और केवड़ा घिस के, खस-गुलाबजल डाल के, गुड़ के साथ पकाते हैं तो भूरे रंग की एक बर्फी बनती है जो गर्मियों में जिगर को ठंडा रखती है। ऐसा तो गज्जब शहर है ये! मिथक तो कहते हैं दुनिया का पहला नगर है बनारस, और आज यहीं पिंटू दुनिया की अंतिम शाम देखने वाला है।
कागज़ के एक छोटे से फर्रे पे पिंटू ने लिख दिया है — “मम्मी पापा! हम निकल रहे हैं करेजवा खाने। उदास मत होना। प्यारा पिंटू।” सड़क पर आते-आते पौने छः बज चुके हैं और पिंटू ने फैसला किया है कि पाण्डेपुर जाने की बजाए यहाँ नज़दीक में गिरजाघर चौराहे पर काशी मिष्ठान वाले के यहां ही खा के काम चला लेगा। लेकिन इस तरफ भी भयंकर भीड़ है। कुछ लोग अभी भी तोड़-फोड़ में लगे हैं, कुछ लूट-खसोट में। काहे? पता नहीं। या तो गुस्सा निकाल रहे हैं प्रकृति पर या पिंटू की तरह अपनी आखिरी तमन्ना पूरी कर रहे हैं। या हो सकता है ये वो लोग हों जिन्हें यकीन है कि दुनिया ख़त्म नहीं होगी — मौके का फायदा उठा लो।
पिंटू अब तेज़ी से चल रहा है। भीड़ और धक्के के बीच, नाली के ऊपर-ऊपर, बीच सड़क से हट के, ताकि कहीं कुचला ना जाए। पिंटू बतला नहीं सकता कि उसके लिए गुलाबजामुन क्या है! बाहर से गहरा भूरा या काला और अंदर से हल्का भूरा या लाल, दूध और खोये और सूजी और चाशनी का सुगम-संगीत। सबसे आगे है खोये का स्वाद जिसमें सांगत दे रहे हैं दूध और चाशनी। पार्श्व में कहीं हलकी सी बांसुरी की तरह बज रही है घी में भुनी सूजी की महक। पिंटू ने पढ़ा था कि गुलाबजामुन एक अद्भुत मिठाई इसलिए भी है कि ये पूरब और पश्चिम के मिलन से बनी है। मंगोलों और मुग़लों के आने से पहले, हमारे यहाँ मुख्यतः दूध की ही मिठाइयाँ बनतीं थीं। खीर, रसगुल्ला, दूध की बर्फी वगैरह। और मुग़ल आये तो वो अपने साथ आटे की मिठाइयों और हलवों का नुस्खा लाये। मतलब कि सूजी का हलवा और बेसन या बूंदी का लड्डू और जलेबी, सब मध्य एशिया से यहां आया है। ईरान और इस्राइल में अब तक भी इन मिठाइयों का खूब चलन है। और इन दोनों विधाओं, मुग़लई और आर्य, दूध और सूजी, का सुन्दर मिश्रण है गुलाबजामुन। गंगा-जमुनी तहज़ीब का अज़ीम शहज़ादा — पिंटू का करेजवा!
वैसे इस तीन सेकंड की प्रक्रिया का सबसे मज़ेदार हिस्सा वो तीसरा सेकंड है। पहले सेकंड में सब कुछ बिखरेगा, दूसरे में घनघोर ऊर्जा निकलेगी, और तीसरे में, अगर बहुत से और पासे सही पड़े तो, हमारे बिखरे हुए प्रोटोन और इलेक्ट्रान जुड़ कर एक अलग धातु बन जाएंगे। एक ऊबड़-खाबड़ पत्थर का टुकड़ा जिसका वज़न करीबन 5 लाख मेगा-टन और सतह क्षेत्र उत्तर प्रदेश जितना होगा। वैज्ञानिकों ने इसे एक सुन्दर सा नाम भी दिया है — एटर्निटी शिप — यानि कि शाश्वत जहाज़। हमारे अवशेषों से बना वो अजीव दैत्य जो सदा अंतरिक्ष में तैरता रहेगा।
गिरजाघर के सामने आते ही पिंटू का दिल डूबने लगा है। गिरजे में इतनी भीड़ है कि आगे जाने का सवाल ही नहीं। आगे मोड़ से ही विश्वनाथ गली भी शुरू हो जाती है तो लगता है वहाँ भी हज़ारों लोग अंतिम दर्शन को आये हुए हैं। घड़ी के हिसाब से सिर्फ पांच मिनट बचे हैं और पिंटू को याद आ रहा है वो लकड़ी के चमचे से गरम जामुन को काटना, उसके कटते ही अंदर क़ैद धुएं का किसी तिलिस्म की तरह निकलना, और गुलगुले का मुँह में रखते ही खुद-बा-खुद पिघलना जैसे कि कह रहा हो — “काहे मेहनत करोगे जी महाराज? हम घुल रहे हैं ना खुद्दे से!”
अचानक एक रेला आया और किस्मत पिंटू की कि यह रेला जामुन की दिशा का ही है। एक-डेढ़ मिनट बचा होगा जब पिंटू दुकान के सामने है। चारों तरफ से भीड़ ने हर-हर-महादेव का नारा लगाना शुरू कर दिया है। लूट खसोट रुक गयी है, धक्का-मुक्की बंद हो गयी है, बस सब तरफ वही नारा है — जैसे कि पूरा शहर एक साथ शिव जी को याद करेगा तो परलय टल जाएगा! भूल गए क्या सब — परलय तो शिवजी का मुख्य पोर्टफोलियो है?
पिंटू को लेकिन नारे से कोई मतलब नहीं। वो दनदनाता हुआ काशी मिष्ठान के अंदर घुसता है और गुलाबजामुन खोजना शुरू कर देता है। काउंटर पे तो नहीं है। यहां नीचे बाल्टी में भी नहीं! अंदर रसोई में? समय समाप्त होने का बिगुल बजने वाला है बस। रसोई में भी नहीं दिख रहा! 20–19–18–17–16… हर-हर-महादेव, गिरजा के घंटे, भीड़ अब एक सुर में रो रही है शायद, कहाँ है गुलाबजामुन यार?
पिंटू हताश बाहर की तरफ मुड़ गया है और तभी, एक बिजली की तरह दिमाग में कौंधता है वो छोटा हांडा जो गोलगप्पे वाले बक्से के नीचे रखा है। रात के बाद उसी हांडे में से तो मिलता था जामुन, जब बाल्टी में ख़तम हो जाता था। पिंटू ने ढक्कन हटाया — कुछ नहीं तो अंदर 30–40 हैं। जामुन हाथ में है। ITR-688 अब इतना बड़ा हो गया है कि आँख को गुलाबजामुन से ज़्यादा नज़दीक लग रहा है। अब शायद अंतिम सेकंड है। गुलाबजामुन मुँह की तरफ बढ़ रहा है, पिंटू की आँखें प्रत्याशा में बंद हो रही हैं, शरीर के अंदर एक घमासान हलचल हो रही है, सब डूब रहा है। पिंटू समझ चुका है कि वो गुलाबजामुन नहीं खा पायेगा लेकिन उसे ख़ुशी है कि अगले ही सेकंड में उसमें और गुलाबजामुन में कोई फर्क नहीं रहेगा, दोनों बस प्रोटोन औए इलेक्ट्रोन होंगे, हवा में तैरते हुए, जो तीसरे ही सेकंड में जुड़ जाएंगे, शाश्वत जहाज़ की ईंट बनकर। पिंटू के चेहरे पर एक सुकून है — जैसे उसने अभी-अभी पाण्डेपुर का ताज़ा करेजवा खाया हो।
Illustration by Usman Ibrahim
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